Aug 10, 2010

हाला, प्याला, मधुशाला


टिप - खालिल काव्य हे श्री.हरिवंशराय बच्चन यांच्या ’मधुशाला’ याचे भाषांतर, रुपांतर, अथवा संस्करण नसुन......’मधुशाला’ पासुन प्रेरणा घेऊन/प्रेरित
होउन रचलेले माझे स्वरचित काव्य आहे. यातील अनेक कल्पना माझ्या स्वत:च्या आहेत, ज्या मधुशलेत ही आढळून येणार नाही.
श्री.हरिवंशराय बच्चन यांच्या ’मधुशाला’ याचा प्रभाव यावर आहे, हे मी मोकळेपणाने मान्य करतो. मला हे लिहिण्यास प्रेरित केल्याबद्दल
श्री.हरिवंशराय बच्चन व ’मधुशाला’ यांचे मनापासुन आभार व त्यांचे ऋणी राहुन वाचकांपुढे हे काव्य सादर करतो.
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साकि    बनुन    कवि        येतो
घेऊन      कवितेची           हाला
अर्थरुपी      मधाळ       शब्दांनी
भरतो काठोकाठ मनाचा प्याला

रसिक   तुम्ही  रसपान   करता
होऊन    शब्दमुग्ध      कवितेचे
अशीच राहो ही शब्दरुपी    हाला
अशीच राहो ही रसिक मधुशाला (१)
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साकि    बनुन    शिक्षक 
वाटतात  ज्ञानरुपी  हाला
सगळे  विद्यार्थी ही   मग
भरतात प्रतिभेचा प्याला

पुण्यकर्म   हे  निरंतन....
असेच   चालु  राहु   दे.....
अशीच राहो ही  विद्यालये
अशीच राहो ही मधुशाला (२)
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स्वर्गातुन घेऊन आला
हा गंगारुपी हाला.......
जटाधारी शिव बनले
त्याचा पृथ्वीवरील प्याला

युगा युगांची पापे धुण्या.......
’भगिरत’ प्रयत्न केले..........
अशीच राहो ही पुण्यात्मा गंगा
अशीच राहो ही मधुशाला (३)
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जीवन    एक     मधुशाला......
प्रत्येक   क्षण   साकि    बनुन
पाजतो    अनुभवांची      हाला
तरी रिकामाच...मनाचा प्याला

कितिही    प्यायले    तरी....
तृप्ति            नाही...............
अशीच अतृप्त ही जीवनगाथा
अशीच अतृप्त ही मधुशाला (४)
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प्रेक्षित येतो........
साकि बनुन.........
पाजतो धर्मरुपी....
मदभरी हाला......

माणुसकी ही विसरतो
मग नशेत राहणारा
फुट पाडतात धर्म, पंथ
एकोपा वाढवते मधुशाला (५)
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मानवी शरीर आहे....
हाडा-मांसाचा प्याला...
ज्यामधे वाहते निरंतन
लाल रक्तयुक्त हाला.....

धक्का लावू नकोस....
सांभाळुन हाताळ याला
नाहितर.........फुटेल हा
जीवनरसाचा प्याला......(६)
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समुद्रमंथनातून आला,
अमृत कुंभ अलबेला......
अन् जहरि विषाचा प्याला
काय करावे याचे?? 

कसे वाटावे........????
कळेच ना कोणाला.......??
पिण्यास हलाहल सत्वरी गेला,
धावुन जटाधारी मतवाला (७)
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मोहिनी रुपी विष्णू
साकि बनुन आला......
घेऊन आपल्या बरोबर,
वाटायला अमृत रुपी हाला

मोहजालात मोहिनीच्या
देव-दानव मोहरले......
अमर राहो ही अमृतहाला
अमर राहो ही मधुशाला (८)
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माझे शरीर आहे प्याला
ज्यात मी भरली......,
राष्ट्रभक्तिची हाला......
रोमरोमात भिनुदे माझ्या

प्रियेची ही ज्वाला......
अखंड, निर्व्याज, निरंतर,
चिरायु होवो ही भक्तिरस हाला
चिरायु होवो ही मधुशाला (९)
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दिवसभर श्रम करतो
पोटासाठी मतवाला
झिरपते शरिरातुन
घर्मरुपी हाला......

      जगाची रितच आहे,
      दिवसभर दमल्यावर
      रात्री आठवते........,
      श्रमपरिहारासाठी मधुशाला (१०)
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उत्तरेस उभा हिमालय 
जणू हिमजडित प्याला
ज्यामधून निरंतन स्त्रवते
हिम जलरस हाला........

सुजलाम्,  सुफलम्    भूमीचे
नंदवन             फुलले...........
चिरकाल वाहो ही जीवन हाला
चिरकाल राहो ही    मधुशाला (११)
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सखे ये........घेऊन,
रत्नजडित कलश प्याला
ऒत नाजुकतेने.........
मधुरस हाला...........

हलकेच लावुन   ऒठांना
मादक    बनव       हाला
अशीच राहो ही मादकता
अशीच राहो ही मधुशाला (१२)
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काळ रात्र सरली
साकि पहाट आली
घेऊन सुवर्ण कुंभ कलश
उजळित प्रकाश हाला

       पशु  -  पक्षि,        निसर्ग......
       डोले   मंत्रमुग्ध       लडिवाळा
       सदैव  प्रकाशमय  राहो  प्याला
       सदैव प्रकाशमय राहो मधुशाला (१३)
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प्रार्थना करण्यास, हिंदू....
जातो देवळात........
मुसलमान मशिदीत, अन्
ख्क्रिस्ती गिरजाघरात.....

       वेगवेगळी देवालय   यांची
       वेगवेगळ्या धारणा....डोकी
       भडकावती   पंडित,   काजी, 
       पाद्रि, थंडकरती....मधुशाला (१४)
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एककल्ली उजाड आयुष्यात
स्त्री......साकि बनुन येते
घेऊन श्रुंगाराचा प्याला
तृप्त करण्या पाजते......,

        कामरुपी              हाला......
        कामरसात भिजून मोहरतो
        तरी  अतृप्त ही  कामवासना
           .......अतृप्त ही मधुशाला (१५)
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समोर रत्नजडित मधुप्याला
घेऊन उभी साकिबाला
नेत्रांनी पाजते मला
विभोर मादक हाला

          तुम्हीच   सांगा     मला??
          का.... फोडु   हा      प्याला
          का....सोडु  ही हाला, मला
          प्राणाहुन प्रिय   मधुशाला (१६)
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नियतिने फोडला दु:खाचा
कुंभ-कलश प्याला......
त्यातुन पाझरे निरंतन
वियोग-वेदनेची हाला

        दरिद्रि    असो  वा   श्रीमंत
        कुणास  चुकला  प्रतिपाला?
       स्थायी, शाश्वत वियोग-वेदना
       स्थायी,   शाश्वत     मधुशाला (१७)
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सजली मैफल.......
सरसावुनी बैसले जन
करोनी कर्णांचा प्याला
गायकही मग हळुवार

        छेडे सुरस स्वर हाला
        अमोघ, सुमधुर, स्वर्गीय
       अशीच बहरो ही मैफल
        अशीच बहरो ही मधुशाला (१८)
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ईश्वराने ठेवला आधांतरी
वसुंधरेचा हरित  प्याला
ऒतली    समुद्रजलरुपी
निळी   खारट  हाला

         रसपान  करण्या  रात्री
        येती   चंद्र - ग्रह - तारे
        युगोयुगांतर अशीच आहे
        अजेय - अमर मधुशाला (१९)
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नाही नाही  सोडू    शकत
मादक   करवंदी    हाला
नाही नाही   फोडू  शकत
मोहक   मधुरस   प्याला

         नाही    विसरु     शकत
         रुपवान कमनिय साकिबाला
         स्वप्नातही   दिसे   मजला
         माझी   प्रियतम  मधुशाला (२०)
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स्वर्गात  भरली   इंद्रसभा
उपस्थित  समस्त  देवता
रंभा,     उर्वशी,       मेनका
या  सजल्या  साकिबाला

          घेऊन सुवर्ण कलश-प्याला
          ऒतति   सोमरस   हाला
          आदि - अनादि,   पौराणिक
          स्वर्गीय   आहे  मधुशाला (२१)
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खळ......खळ, बघ   फुटला
मातीचा सुबक, सुरख प्याला
छळ.....छळ, बघ   सांडली
अमीट, मादक करवंदि हाला

           बघ बघ साकिला राग आला
           कितीही अनावर संताप झाला
           तरी मायेने  जवळ   घेणार
           प्रेमळ,   वत्सल   मधुशाला (२२)
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साकिकडे मागितला मी प्याला
तिने दिला सुवर्ण प्याला
साकिकडे मागितली मी हाला
तिने पाजली मादक हाला

           जे....जे साकिकडे मागितले
           ते......ते   मला   मिळाले
           कल्पवृक्ष, कामधेनू  सारखी
           इच्छापूर्ती करते  मधुशाला (२३)
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कुठेच   नव्हता   प्याला
कुठेच   नव्हती    हाला
कुठेच   नव्हता   साकि
कुठेच  नव्हती मधुशाला 

           ऒतुन समाधानरस    हाला
           काठोकाठ भरा मनाचा प्याला
           बहिर्मुख होऊन  शोधण्यापेक्षा
           अंतर्मुख बनवते   मधुशाला (२४)
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